बिन मालिक पेटेन्ट “गांधीवाद”


बिन मालिक पेटेन्ट “गांधीवाद”
गांधीवाद अपने आप मे शुरू से ही विवादित रहा है, क्यूँ की इसका जन्म खुद ही गांधी की मृत्यु के बाद हुआ है, गांधी ने तो अपने जीते जी कोई वाद लिखा नहीं और मरने के बाद लेखकों की पूरी एक फौज ने अपने वैज्ञानिक ना बन पाने की कुंठा गांधीवाद मे उड़ेल दी। इतने शोध और संस्मरण लिख दिये गए और सबने स्वतः ही इसके प्रामाणिकता की मुहर लगा दी, हालांकि इस समय तो मैं भी उसे अप्रामाणिक नहीं कह सकता क्यूँ की अप्रामाणिकता के कोई प्रमाण मेरे पास नहीं है। भारतीय समाज मे गांधी को मानने वाले और उन्हे बिना जाने ना मानने वालों का अस्तित्व भी शुरू से रहा है। गांधी जहां मजबूत इरादों वाले के रूप मे जाने जाते हैं वहीं एक तबका उन्हे “ मजबूरी का नाम महात्मा गांधी” जैसे मुहावरों से याद करता है। मुझे अभी भी याद है बचपन मे मैंने कईयों के मुंह से सुना था कि गंधिया बहुत ........ रहे। लेकिन मेरा पूरा यकीन है कि वो गांधी को बिना जाने कह रहे थे। सन 2002 तक मेरी भी गांधी के बारे मे जानकारी कम ही थी जब तक कि मैंने गोपाल गोडसे द्वारा लिखित पुस्तक “गांधीवध और मैं”, हंसराज रहबर द्वारा लिखित पुस्तक “गांधी बेनकाब” और नवजीवन प्रकाशन कि “ सत्य के प्रयोग” पढ़ ना ली।

तथाकथित और मूल चरित्र से बिना प्रमाण पत्र लिए कतिपय लेखकों ने जो गांधीवाद की रचना की, उसे उन्होने इतना क्लिष्ट, जटिल, दुरूह और आदर्श की अति परिकाष्ठा पे पहुंचा दिया जिसे प्रायः ही जन के लिए अष्पृश्य मान लिया जाता है। जिस अष्पृश्यता का गांधी शुरू से विरोध करते आए उसी अष्पृश्यता के उलट रूप का समरूप प्रभाव उनके विचारों और प्रयोगों को गांधीवाद का शब्द दे के किया जा रहा है। गांधी का उल्लेख क्या कर दिया जाय, या किसी ने कह क्या दिया की मैंने गांधी से प्रेरणा ली है, या मैं ये कार्य तो गांधी जी की तरह कर रहा हूँ, ले खड़े हो जाते हैं गांधीवाद के स्वयंभू कॉपीराईटेड ठेकेदार, कि ये गांधीवाद कैसे हो गया ? और शुरू हो जाता है बहसों का एक दौर गांधी जी ऐसे थे, फलां तो ऐसे हैं और इस अंतहीन बहस मे गांधी काफ़ी पीछे छुट जाते हैं, गांधी जैसा करने वाला और गांधीवाद पे लिखने वाला दोनों को चर्चा मे जगह मिल जाती।

गांधी जी अगर जिंदा होते तो ये अपनी इतनी जटिल व्याख्या देख अपना सर पकड़ लेते, क्यूँ की वो तो निहायत सरल रास्ता अपनाते थे। उन्होने मानव की जीवनचर्या, धर्मपालन, सत्य पे आत्मविश्वास और क्षमा की शक्ति, खुद को कष्ट दे के विरोधियों की शक्ति का हरण , और आला दर्जे का आग्रह इसी पे ज्यादे प्रयोग किए।

गांधी के रास्ते को शत प्रतिशत कोई उतार भी नहीं सकता और ऐसा भी नहीं हो सकता की कोई दूसरा गांधी नहीं हो सकता। हर युग मे गांधी जैसे चरित्र आते हैं जो देश कि सीमाओं से ज्यादे मानवता के प्रश्न हल करते है। गांधी देश की सीमाओं से ज्यादे मानवता के प्रश्नों पे काम करते थे। अंग्रेजों का शासन अगर अच्छा होता तो मेरे अनुसार कदाचित वह उसे भी स्वीकार कर लेते क्यूँ की वो हमेशा अपराध से घृणा करते थे अपराधी से नहीं।

गांधी के प्रयोगों और आंदोलन के समय का चरित्र और परिस्थितियाँ अलग थी। गांधी को आंदोलन की बनी बनाई जमीन मिली थी जिसमे उन्होने अपने अफ्रीका के सिद्ध किए गए फार्मूले का प्रयोग किया और पूरे भारतवर्ष ने विदेश से पढ़ और कढ़ के आए एक नेता को धीरे धीरे अपना नेता मान लिया। अहिंसा के उनसे मानवता वादी सिद्धान्त का भारत के गरमदल भी नहीं अस्वीकार सके और ना ही अस्वीकृत सिद्ध कर सके क्यूँ की उसमे मानव कल्याण के सूत्र छुपे थे। उसमे शासक के हृदय परिवर्तन पे ज्यादे  ज़ोर था बनिस्पत शासक परिवर्तन के। मार्क्स और लेनिन से भी कहीं आगे गांधी के प्रयोग युगांतकारी स्वीकार्य रूप मे था और गांधी ने उसी दृष्टि से उसकी रचना भी की थी जो की उनके धर्म दर्शन के ताप के आंच मे पकी भी थी। गांधी जी स्वयं सुधार और स्वयं के विचारों पे कितने दृढ़ और आत्म विश्वासी थे ये आपको नीचे कि लाइन मे मिल जाएगा जिसे गांधी के सत्य के प्रयोग पुस्तक से उद्धृत किया गया है।

मुझे व्यक्तिगत तौर पे लगता है कि गांधी से तुलना करने से पहले भारत मे किए गए आंदोलन के साथ उनकी दक्षिण अफ्रीका मे किए गए आंदोलन का अध्ययन भी करना चाहिए। भारत मे गांधी ने आंदोलन मूलतः अंग्रेज़ो को भारत से हटाने के लिए किया था, जबकि दक्षिण अफ्रीका मे उनका आंदोलन दक्षिण अफ्रीका से अंग्रेज़ो को हटाने के वनिस्पत वहाँ के सिस्टम मे सुधार करने की थी। और गांधी ने अपना सत्य का प्रयोग भी वहीं से शुरू किया था।

गांधी अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन करते हुये भी राजनिष्ठा से स्वाभाविक प्रेम किया करते थे और दक्षिण अफ्रीका मे उन्होने गॉड सेव द किंगबिना किसी आडंबर के गाये थे। गांधी ने कभी व्यक्ति से शत्रुता नहीं रक्खी वरन वो तो सामने वाले व्यक्ति के हृदय से बुराई निकालने मे ही लगे रहते थे। 

दक्षिण अफ्रीका मे एक चर्चा के दौरान डॉ बूथ से उन्होने कहा था शत्रु कहलाने वाले लोग दगा ही करेंगे यह कैसे मान लिया जाए? यह कैसे कहा जा सकता है कि जिन्हे हमने अपना शत्रु माना वे बुरे ही होंगे। गांधी हमेशा अपने बयानों एवं कदमों का स्वतः आत्मपरीक्षण किया करते थे, और अगर उन्हे लगता था कि उनका कदम या बयान गलत संदर्भ मे जा रहा है तो आगे बढ़कर स्थिति को संभालते थे और कई बार तो सार्वजनिक माफी भी मांगते थे। आंदोलन को स्थगित एवं बंद करने का भी साहस उनमे था अगर उन्हे लगता था कि इस आंदोलन के लिए आत्मसुधार पहले जरूरी है। गांधी खुले मन से , आत्मविश्वास से ईश्वर एवं सत्य कि शक्ति पे विश्वास करते हुये सामने वाले का हृदय परिवर्तन करना चाहते थे। उनके सिद्धांतों से ऐसा लगता था कि किसी पे दवाब डालना हिंसा का ही एक रूप है। इसलिए उनका अनशन अक्सर आत्मसुधार के लिए होता था वनिस्पत दवाब बनाने के

गांधी की समझौता वृत्ती उन्हे उनके मंजिल कि तरफ जाने मे एक सीढ़ी एवं गति का बढ़ाने का काम करती थी। अपने सत्य एवं मंजिल कि राहों मे वो कभी भी ऐसी बातों को टकराव का मुद्दा नहीं बनाते थे जिससे की मूल विषय से उनका फोकस चेंज हो जाए। मुद्दो के प्रति अपने फोकस को वो किसी भी कीमत पे चेंज नहीं होना देने चाहते थे और दूरदृष्टि मे अपने विवेक एवं विश्लेषण का प्रयोग करते थे। 

गांधी का व्यक्तित्व जमीन को दृढ़ता से पकड़े हुये एक लचीले वृक्ष के समान था जिसको ये एहसास था कि उन्हे असंख्य राहगीरों को छाया देना है, अतः अकड़कर टूटने से ज्यादे वो वृक्ष कि जड़ कि दृढ़ता को बनाए रखते थे और अनावश्यक आंधीयों से टकराने मे वक़्त जाया नहीं करते थे। और इसीलिए नेटाल के एक वकील सभा मे जब न्यायाधीश ने गांधी के प्रवेश का फैसला सुनाया और उन्हे पगड़ी उतारने को कहा तो गांधी स्वतः ही पगड़ी उतारने को राजी हो गए। हालांकि इसके पहले हुयी एक घटना मे उन्होने लाख दवाब के बाद पगड़ी उतारने से मना कर दिया था। उनका मानना था की न्यायालय मे कार्य करते वक़्त न्यायालय का नियम पालन करना चाहिए तथा पगड़ी पहनने की अनावश्यक दृढ़ता उन्हे उनके उद्देश्यों से भटका देगी । हालांकि उनके कई मित्र उनके इस समझौते वृत्ती से नाराज़ रहते थे लेकिन गांधी जड़ की दृढ़ता बनाए रखते हुये अपने तने एवं टहनियों को लचीला बनाए रखते थे। गांधी गोरों का पक्ष भी निष्पक्षता से रखते थे और वे ये विचार रखते थे की प्रतिपक्षी को न्याय दिला के ही न्याय को जल्दी पाया जा सकता है।गांधी समूचे समुदाय या व्यक्ति से घृणा नहीं करते थे, बल्कि वो उनके दोषो से घृणा एवं गुणों से प्यार करते थे, एक व्यक्ति के प्रति वो दोनों भाव रखते थे। सामने वाला अंग्रेज़ है या हिंदुस्तानी इससे उन्हे कोई फर्क नहीं पड़ता था

डरबन की समुद्र यात्रा के दौरान जब समूचे जहाज को प्लेग के कारण सूतक घोषित कर के बन्दरगाह के पहले ही रोक लिया गया तो जहाज के कप्तान के एक प्रश्न पे जिसमे उन्हे गोरों द्वारा चोट पहुंचाने की बात कही गयी थी के जवाब मे गांधी ने कहा था- मुझे आशा है की उन्हे माफ कर देने की और उनपे मुकदमा न चलाने की हिम्मत ईश्वर मुझे देगा। आज भी मुझे उनपर रोष नहीं है, उनके अज्ञान , संकुचित दृष्टि के लिए मुझे खेद होता है, मैं समझता हूँ की जो वो कर रहे हैं वह उचित है ऐसा वे शुद्ध भाव से मानते हैं, अतएव मेरे लिए रोष का कोई कारण नहीं है।

एक बार तो जब वो सत्याग्रह के लिए पूरी तरह से तैयार हो के हिन्दुस्तान आए तो तत्कालीन बंबई के गवर्नर ने उन्हे विशेष तौर पे गोखले के मार्फत बुलाया, और उनसे ये वचन मांगा की सरकार के खिलाफ आप जब भी कोई कदम उठाएँ एक बार उनसे बात कर लिया करें। आगे जो बात गांधी ने कही उसे बड़ा गौर से सुनिएगा ये उनके सत्याग्रह का दिग्दर्शी सिद्धान्त थे। गांधी ने कहा ये वचन देना मेरे लिए बहुत सरल है। क्यों की सत्याग्रही के नाते मेरा ये नियम ही है की किसी के विरुद्ध कोई कदम उठाना है तो पहले उसका दृष्टिकोण उसी से समझ लूँ और जिस हद तक उसके अनूकूल होना संभव हो उस हद तक अनुकूल हो जाऊँ। दक्षिण अफ्रीका मे मैंने सदा इस नियम का पालन किया है और यहाँ भी ऐसा ही करने वाला हूँ। 

एक बार नेटाल मे उन्होने गोरों के खिलाफ, जब गोरों ने उनपे हमला किया था मुकदमा चलाने से इंकार कर दिया। और इंकार के बाद गोरे इतना शर्मिंदा हुये की कई के विचार गांधीके प्रति बदल गए और वो उनकी बातों को सुनने लगे। गांधी कई बार राजनिष्ठा के पालन की दिशा मे अपना व्यक्तिगत मत अलग रखते थे, और इसीलिए तो बोअर युद्ध के समय मे व्यक्तिगत सहानुभूति बोअर निवासियों की तरफ से होते हुये भी ब्रिटिश राज्य की रक्षा मे हाथ बटाना अपना धर्म समझा और घायलों की सेवा सुश्रुषा कर गोरों का हृदय परिवर्तन किया।

एक बार गांधी के पास जोहन्स्बर्ग के दो कुख्यात पुलिस अधिकारी कंगाल हो जाने के बाद आए जिसके खिलाफ कभी गांधी ने आंदोलन चलाया था, और गांधी ने स्वतः आगे आकर उनकी मदद की और उनकी नौकरी जोहान्स्बर्ग की नगर पालिका मे लगवाया। ऐसे थे गांधी, जो कभी भी किसी कौम या व्यक्ति के प्रति स्थायी भाव नहीं रखते थे, और कई मौकों पे हिंदुस्तानी मुहर्रिरों के साथ साथ अंग्रेज़ो को भी अपने घरों मे शरण देते थे। गांधी को अपने सत्याग्रह पे इतना विश्वास था की जूलु विद्रोह के वक़्त अंग्रेज़ो से ही उन्होने उनके विरोधी जुलूवों की सेवा करने का अधिकार प्राप्त कर लिया और ये गांधी के व्यक्तित्व के निश्चल भाव का दम था की अंग्रेज़ उनकी बात मान लेते थे।

गांधी के सत्याग्रह के दूसरे दिग्दर्शी सिद्धांतो मे था कि सत्य का आग्रही रूढ़ि से चिपटकर ही न कोई काम करे, वह अपने विचारो पे ही न हठ पूर्वक डटा रहे , हमेशा यह मानकर चले की उसमे भी दोष हो सकता है और जब कभी दोष भी दोष का ज्ञान हो जाए भारी से भारी जोखिमों को उठाकर भी उसे स्वीकार करे और प्रायश्चित भी करे।
 
हालांकि वर्तमान मे मेरा मानना है कि गांधी से तुलना कर के किसी व्यक्ति की मंशा और प्रयासों को खारिज करना सरासर अन्याय होगा। क्यूँ की गांधी समकालीन परिस्थितियों मे तुलनीय हैं ही नहीं। गांधी के आंदोलन का आधार और माहौल अलग थे और आज के अलग। कोई व्यक्ति अगर गांधी से एक प्रतिशत भी सीखना चाहे तो बेशक वो फेल हो हमे क्यूँ ना उसे और प्रोत्साहित करना चाहिए बनिस्पत उसे उलाहना देने की, कि देखो उसका दुस्साहस गांधी बनने चला है। गांधीवाद को इतना कैद ना कर लें कि उसके शब्द प्रयोग भर से ही लेखक अपनी कुंचियाँ चलाने लगे। और पेटेंट उल्लंघन के आरोप लगाने लगे।

गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि ज्यादे से ज्यादे लोगों को हम उनसे प्रेरणा लेने के लिए प्रेरित करें और जो लोग प्रेरणा लेने कि कोशिश कर रहें हैं उन्हे उत्साहित करें ना कि स्व कॉपीराईटेड रचित अति क्लिष्ट गांधीवाद कि कसौटी पे उसके उत्साह को शूली चढ़ा दें।
सीए पंकज जायसवाल
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